सांप्रदायिक दंगे - रवि पाठक की आठ कविताएँ


पेंटिग यहाँ से साभार

रवि पाठक ने ये कविताएँ असुविधा के लिए कुछ दिनों पहले भेजी थीं. दंगों पर एक सीरीज में लिखी गयीं इन कविताओं में न तो सर्वधर्म समभाव की पिटीपिटाई लीक है, न ही संवेदना के नाम पर अतिरंजित घटनाओं की तलाश. यह जनता के बीच रहकर उस त्रासदी की पूरी प्रक्रिया को देख तथा भोग रहे एक संबद्ध कवि का पोएटिक आब्जर्वेशन है. इसमें हमारे समय का पूरा समाज अपने असली चेहरे के साथ दंगों में अपने-अपने तरीके से पार्टिसिपेट करता दिखाई देता है. असुविधा की ओर से उनका स्वागत...


दंगे के सौन्दर्यशास्त्री


विभिन्न दंगों के प्रति
राय अलग है उनकी
घुस जाते हैं दंगों में
चाय बिस्कुट के साथ

दंगे के सौन्दर्यशास्त्री
चुसकियाते - मुसकियाते

गहन गोपन मंथन
गढ़मुक्तेश्वर में मुसलमान ज्यादा मारे गए
नोआखाली में हिन्दू ज्यादा हुए थे शिकार
दिल्ली दंगे में बराबर की टक्कर थी
उस समय के दंगों की
बात ही कुछ और है !!

चैरासी के सिख विरोधी दंगे
को ज्यादा तवज्जो नहीं देते
मेरठ और भागलपुर
कुछ कुछ आजादी के दिनों की याद दिलाती है !!

कुछ दंगों में औरत ज्यादा शिकार हुई
बच्चे ज्यादा मरे कहीं
कुछ में लूटपाट पर बल था
लठैती,छूड़ेबाजी,तेजाब,त्रिशूल थे कहीं
बाकी जगह सेना पुलिस थी
खोजने पर भी नहीं मिला
गुर्दा आंख निकालने की कोई घटना
शायद यह
शांतिकालीन मामूली सा अपराध था !!

कुछ दंगे जुलूस निकलने से शुरू हुआ था
कुछ के पीछे इबादतखाना का धर्म था
लड़कियां,कुरान,रामायण ही नही
गाय,सूअर भी काफी थे
मऊ दंगे का जिक्र सुन
वह लगाता है ठहाका
क्योंकि यह मुर्गी लूटने से प्रारंभ हुए थे !!


परिभाषा

मिलिए मुहल्ले के सिकंदर से
मुस्लिम बेवा के दो बीघा जमीन
को कब्जाए
मानता है गली के कौटिल्य को

दंगे के दौरान सिख ही बैलेंसिंग पावर हैं
दोस्ती बनाए रखो
खूब लूट लोग यहां वीर हो गए
बाकी कमजोर जो कबीर हो गए

अठारह लड़कियों का बलात्कारी
स्वयं को कृष्ण समझता था
व देख के आनंदित होने वाले
स्वयं को बर्बरीक

वे बुतखाना गिराने को
जेहाद कहते हैं
जड़हीन बवाल को
इंक्लाब


परामर्श

यह कोई कविता नही
परामर्श भर है
दंगे में सब कुछ लूटा जा सकता है
मौका मिले तो पैसा,घर,बैंक
हौसला हो तो औरतें भी
बच्चा सहित

जज्बा हो तो बालू,गिट्टी
दिमाग हो तो सोना,चांदी भी
एक आदमी तो बुढ़िया गाय लेकर भाग रहा था
ज्यादा काबिल बैंक,ए टी एम पर नजर रखे हैं
यहां ऐसे बेवकूफ भी मिलेंगे
नजर जिनकी
है आपके अतुकांत कविताओं के गट्ठर पर


मुहल्ले का हेरोडोटस
मुहल्ले का हेरोडोटस
बता रहा इतिहास दंगा का
कौन ज्यादा मरा
कौन पहले मरा
पहला गुनहगार कौन?

मुहल्ले का इरोटोस्थनीज
बघार रहा अधिवास ज्ञान
विधर्मियों के मुहल्ले में न बसने के निर्देश
पड़ोसी मुहल्ले से बचने के नुस्खे
मुहल्ले का कालिदास
रो रहा एकांत में

सूँघेगा यक्ष
बारूद का गंध
यक्ष फँस गया था
शहर के कर्फ्यू में


डाक्टर कबीर

अशांत आत्माओं के शहर में
घूम रहा वह डाॅक्टर
जिसके मन में
दुनिया का नक्शा
व पीठ पर बर्फ का पहाड़
इस ठंडक को भुलाना
मुश्किल है भाई

हाथ में गजब की नरमी
रफू हो जाते दरद
चाहे नस जज्बात का ही क्यों न हो
उसके हाथों की सख्ती में भी
राहत-बरक्कत है
लगते ही सब कुछ सीधा हो जाता है

चाहे हड्डी इतिहास का ही क्यों न हो
बातों में विश्वास का नशा
सुनते ही सुध खो बैठता यह शहर
चाहे मामला मजहब का ही क्यों न हो ।
अशांत आत्माएं प्रयोग करती
उन्नत मशीन,तकनीक कौशल
स्कूली बच्चों को एक ही बार में निगलती
बुजूर्गों को अतीत का भय दिखा
करती खामोश
व खून चूसती नुकीले थूथन से
जवानों को गिरा पहाड़ी सड़क पर
तोड़ते हैं हाथ पैर व
ब्रेनवाश पैकेज के मुख्य भाग में
दिखाया जाता भविष्य का आतंक ।

अशांत आत्माएं
चिढ़ती हैं डाॅक्टर से
ये रहना चाहती हैं इसी शहर में
इनका होना ही है मुकाबला
शहर में कोई एक ही रहेगा ।

उदास लोगों की भीड़


वे दंगा रोकना चाहते हैं
उस भीड़ के आगे वाले लोग
चूल्हा के आग व
गर्म रोटियों की महक को याद करते हैं
पीछे उनके मोटे चश्मों वाले लोग हैं
उनके पास छंदबद्ध कविताएं
अखबार की कतरनें,अंडरलाईन की गई किताबें हैं

बीच में सर झुकाए युवतियां हैं
जिनके दहेजू घरसंसार की
रूकी है तलाश दंगों में
उसके बाद
विकलांग बच्चों की टोली है
जिनके पीठ पर बस्ता
व हाथ में गुलाब का फूल है

सबसे पीछे
किराए पर लाए गए
सुस्ता रहे वृद्धजन हैं
जो बेहतर दिनों की याद में
सूर्ती फांक रहे हैं

दंगे की पूर्व संध्या पर
आपका स्वागत है

दंगे की पूर्व संध्या पर
ग्राहकों ने बिना तौल कराए
लिए गेंहूँ ,चावल
दुकानदारों ने भी
बिना गिने रखे पैसे
दूरदर्शियों ने लिए
बड़े नाप के कपड़े
क्या पता ,दंगा लंबा चले
व उनका बच्चा बड़ा हो जाए

दंगों की आहट पर
मिल रहे प्रेमी अंतिम बार
बिना संकोच,बिना भूमिका,बिना वादा
मोबाईल रिचार्ज करा रहे लोग
जमा कर रहे राशन,पानी,बम,गोली
छुट्टियों का आवेदन कर रहे
डरपोक पुलिस वाले
लाॅकर साफ कर रहा तहसीलदार
दंगा फण्ड का आडिट नहीं होता


स्वदेशी मिल का सायरन


सारे श्रमिक गांव भागे
बेल मैनेजर भी भागा
सायरन को खुला छोड़कर
दंगा शुरू हुए दस दिन हो चुके
अब भी सायरन समय से बजती है
सब सही है का भ्रम रचती है

जब सोहन का घर लूटा गया
जोहरा के इज्जत लूटते बखत भी
बजता रहा स्वदेशी मिल का सायरन
मंत्री के पोपले घोषणा पर
मुख्यमंत्री के सख्त होने पर
बाइज्जत बरी हुए दंगाई तब भी
बजती रही सायरन

पूरी आन से
पूरी ईमान से



मुसलमानों के मुहल्ले

उनके मुहल्ले अलग ही महकते
मकान उनके,गली उनकी
पहनावा,छींक,खाँसी,हँसी
अलग फूल,इत्र,खूशबू,जिन्नात उनके
चैकसी का शिकन
चेहरे पर रखे
मानो इतिहास उनका पीछा
ज्यादा तेजी से करता है ।

सब्जियाँ ,मीट उनके
अलग मसाले से तर रहते
इन मसालों में भी कहावतें
घुस गई हैं संदेह के साथ ।

उलटे पत्ते
चोटी नहीं दाढ़ी रखने की बात
कितना विलगाएगी
उनके आँसू,प्रेम व सपने
व बच्चे जैसे होते अपने
दुख-दर्द उनकी औरतों का
उतना ही जितना मेरी बहन,माँ,दादी का है

बुर्का में केवल आँख
प्रेतों के द्वीप होने का स्वांग भर है
मुसलमानों की हिन्दी
बांग्ला व पंजाबी भी
कुछ अलग होती है
फारसी की छौंक
इन्हें जायकेदार बनाती है ।


संपर्क -
स्थायी निवास-ग्राम करियन,जिला ईलमास नगर ,समस्तीपुर,बिहार ,पिन848117
सहायक चकबंदी अधिकारी पद पर सिरसा,चिरैयाकोट मउनाथभंजन उत्तर प्रदेश में कार्यरत ।
मोबाईल नं 09208490261

टिप्पणियाँ

रवि कुमार ने कहा…
सीधी और सहज कविताएं...
अच्छी लगीं...आभार
बाबुषा ने कहा…
सभी कवितायेँ परतें उघाडती हुयीं..कठोरता से नहीं ...एकदम आराम से ! ये ज्यादा खतरनाक है ..और असरदार .. !
Unknown ने कहा…
ऐतिहासिक पात्रों (मोहल्ले का हेरोडोटस )के माध्यम से उनके चरित्रों को बयां करती.सीधी सपाट बात....कुछ जो बहुत अच्छी लगी...स्वदेशी मिल का सायरन और मुसलमानों के मुहल्ले

अब भी सायरन समय से बजती है
सब सही है का भ्रम रचती है

इन मसालों में भी कहावतें
घुस गई हैं संदेह के साथ ।
ऐतिहासिक पात्रों (मोहल्ले का हेरोडोटस )के माध्यम से उनके चरित्रों को बयां करती.सीधी सपाट बात....कुछ जो बहुत अच्छी लगी...स्वदेशी मिल का सायरन और मुसलमानों के मुहल्ले

अब भी सायरन समय से बजती है
सब सही है का भ्रम रचती है

इन मसालों में भी कहावतें
घुस गई हैं संदेह के साथ ।
Sayeed Ayub ने कहा…
कवितायें बहुत अच्छी हैं. बधाई! मैं इसे अपने वाल पर शेयर कर रहा हूँ.

अशोक भाई, आजकल व्यस्तता इतनी अधिक है कि बहुत मुश्किल से फेसबुक पर कुछ संपर्क रख पा रहा हूँ. चाहकर भी अधिक कुछ नहीं लिख पा रहा हूँ. रवि जी को बताइए कि थोडा कहने को ही बहुत अधिक समझें. मैंने इसे अपने वाल पर शेयर किया है, एक कमेन्ट के साथ...
प्रदीप कांत ने कहा…
दंगों की समाजशास्त्रीय विवेचना करती सशक्त कविताओं का चयन है।
Shyam Bihari Shyamal ने कहा…
साम्‍प्रदायिक दंगे पर लिखी रवि पाठक की कविताएं सीधे संवाद कर रही हैं। सामने खड़ी होकर। बेलौस और बेबाक। उल्‍लेखनीय यह कि कवि की कठोर टिप्‍पणियां भी सरलता से सहज-सहज प्रस्‍तुत होती चल रही हैं। यह अनुभूति दंग करती है कि दंगे पर कविता का ऐसे भी दृष्टिपात संभव है, बिना किसी तामझाम के। कवि को बधाई, प्रस्‍तुति के लिए 'असुविधा' का आभार...
Shyam Bihari Shyamal ने कहा…
साम्‍प्रदायिक दंगे पर लिखी रवि पाठक की कविताएं सीधे संवाद कर रही हैं। सामने खड़ी होकर। बेलौस और बेबाक। उल्‍लेखनीय यह कि कवि की कठोर टिप्‍पणियां भी सरलता से सहज-सहज प्रस्‍तुत होती चल रही हैं। यह अनुभूति दंग करती है कि दंगे पर कविता का ऐसे भी दृष्टिपात संभव है, बिना किसी तामझाम के। कवि को बधाई, प्रस्‍तुति के लिए 'असुविधा' का आभार...
kavitaye seedhi man par var karti hain. aur dange ki trasdi aur manovrite udhadti hui .. anavrit hoti hui... behatreen udal logo ki bheed aur swadeshi mil ka syran bahut umda hain. shukriya
Dr. Amar Jyoti ने कहा…
इधर उधर भटकने के बजे सीधे लक्ष्य पर चोट
करती सार्थक कवितायें. हार्दिक बधाई.
दंगों की विभीषिका पर बहुत ही यथार्थ के साथ मार करती और असरदार कविताएं
DHARMENDRA MANNU ने कहा…
vyangaatmak lehje mein likhi gai kavita sidhe apne vishay vastu pe....

bahot achhi lagi rachnaayen...

Dharmendra mannu
Umesh ने कहा…
बहुत अच्छी कविताएं हैं। यथार्थ का बोध करातीं। दंगों की मानसिकता को प्याज़ की परतों की तरह उघाड़तीं। बधाई रवि पाठक जी को।
nitesh khawani ने कहा…
इधर उधर भटकने के बजे सीधे लक्ष्य पर चोट
करती सार्थक कवितायें

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